Part 2
'मेरा नाम अर्जुन सचदेवा है... मेरे आगे खड़ा व्यक्ति थोड़ी गर्दन मेरी तरफ घुमा कर बोला ' में लुधिअना का रहनेवाला हूँ | हमारा सायकलों के पार्ट्स बनाने का कारखाना है | यह हमारा पुश्तेनी बिज़नस है | देवी माँ का दिया सब कुछ है | सच पूछो तो कोई कमी नहीं थी..."
लाइन धीरे धीरे आगे सरक रही थी | उसने तनिक रुकने के बाद बोलना शुरू किया, " शानदार बंगला, बड़ा सा कारखाना, ढेरो वर्कर्स, घर में नौकर - चाकर ! एकदम खुशहाल परिवार | मेरे माता पिता और मेरी दादी .... अभीतक जिंदा है | ....उसकी उम्र बताओ तो आपको हैरानी होंगे .... 92 साल .....अभी भी जिंदा है |"
" घर में धन -दौलत, मोटर गाड़ी, सुख आराम की कोई कमी नहीं ...." अर्जुन सचदेवा गंभीर स्वर में बोले, " बस एक ही कमी खटकती थी .. मेरी शादी को 11 साल हो गए थे मगर ...कोई औलाद नहीं थी | पहले 2 -3 साल तो हसी ख़ुशी गुजर गए | उसके बाद हमारे घर में.... रिश्तेदारों में खुसुर - फुसुर शुरू हो गई | मेरी दादी की हर घडी एक ही रट रहती, 'पोता चाहिए | पोते को गोद में खिलाना है | मेरी श्वासों का क्या भरोसा ! अर्जुन पुतर.. पोता चाहिए ! "
उसने जेब से रुमाल निकालकर अपने सर पर विशिष्ठ तरीके से बांधा |
"फिर क्या हुआ ??" मैंने उत्कंठा भरे स्वर में पुछा|
मेरी पत्नी माधुरी ने अनेक डॉक्टरों, वैद्यों से राय-मशवरा किया ! दवाओं से लेकर दुआओं का दौर शुरू हो गया | जिसने जो बोला वही करते ?... पीरों की दरगाहों पर मन्नते मांगी | मंदिरों में नारियल चढ़ाये | धागे बांधे | यहाँ से वहां पता नहीं कहाँ कहाँ के धक्के खाये | अब तो हम दोनों भी निराश होने लगे | घर में अजीब सी चिंता ने आकर डेरा दाल लिया | दादी की 'पोता चाहिए' रट अब धीमी पड़ने लगी | उसके चेहरे पर निराशा और उदासी की ज़ुरियां और भी गहरी हो उठी |"
'भगत जी ... " एक और सेवादार पार्थना भरे स्वर में टोका .."थोडा जल्दी चलिए और हाँ अपना सर ढक लीजिये |"
मैंने आगे पीछे देखा | सभीके सिरों पे रुमाल बंधे थे |
"लेकिन ,,,, " मैंने अपनी जेबें टटोलते कहाँ "मेरे पास तोह सर ढकने का रुमाल नहीं नहीं |"
"थोडा आगे चलिए " सेवादार ने मेरा कन्धा थपथपाया, " आगे एक जगह रुमाल रखे है | वहां से लेकर सर पे बांध लेना|"
"जब हम एकदम निराशा के समुन्दर में गोते लगा रहे थे, " अर्जुन सचदेवा ने आगे कहा, "तभी किसीने हमें सुझाव दिया की आप एक बार पूज्य श्री राधे शक्ती माँ की शरण में जाकर तो देखिये | उसने हमें यहाँ का एड्रेस दिया | पहले तो मैंने लापरवाही से टाल दिया | मगर मेरी पत्नी माधुरी ने कहा, एक बार ही जाने में क्या हर्ज़ है | हम दोनों यहाँ आये | पहली बार जब हमने श्री राधे शक्ती माँ के दर्शन किये तो हम दोनों के दिलों में आशा की किरण जैसे फुट पड़ी | हम निरंतर आते रहे | 'देवी माँ' के चरणों में माथा टिकाते रहे | फिर्याद करते रहे !... और फिर जैसे चमत्कार हो गया | 'देवी माँ' ने हमारे बहते आसुओं पर तरस खाया| "
"जैसे हमारे सोये भाग्य जाग उठे | 'देवी माँ' की कृपा जैसे अमृत बनकर हम पर बरसने लगी |"
"फिर क्या हुआ?" .. मैंने उतावले स्वर में पुछा...
"फिर वही हुआ जो देवी माँ की कृपा से होता है ".. अर्जुन सचदेवा चेह्कते स्वर में बोला....'दादी को पोता मिल गया"...
(निरन्तर..... )
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